Tuesday, October 29, 2024
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भारत में झूम खेती: जानिए कौन-कौन सी जगहें हैं मशहूर

भारत विविधताओं का देश है, और यहाँ खेती की भी अनोखी परंपराएं हैं। इनमें से एक विशेष प्रकार की खेती है झूम की खेती, जिसे स्लैश एंड बर्न (Slash and Burn) के नाम से भी जाना जाता है। इस पारंपरिक खेती की पद्धति का उपयोग भारत के कई पूर्वोत्तर राज्यों में सदियों से हो रहा है। चलिए इस लेख में हम झूम खेती के बारे में विस्तार से जानते हैं, इसके फायदों, नुकसान, और भारत में कौन-कौन सी जगहें हैं जहाँ यह विधि अधिक प्रचलित है।

झूम खेती क्या है?

झूम खेती, जिसे स्लैश एंड बर्न एग्रीकल्चर (Slash and Burn Agriculture) भी कहा जाता है, एक पारंपरिक कृषि प्रणाली है जिसका उपयोग विशेष रूप से पूर्वोत्तर भारत के जनजातीय समुदायों द्वारा किया जाता है। इसमें जंगल की भूमि को काटकर और जलाकर कृषि योग्य बनाया जाता है। यह प्राचीन काल से ही इन क्षेत्रों में प्रचलित है और आज भी इसका उपयोग किया जा रहा है।

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झूम खेती का इतिहास

भारत में झूम खेती का इतिहास बहुत पुराना है, विशेष रूप से पूर्वोत्तर के राज्यों जैसे मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा, और असम में। यह पद्धति आदिवासी समुदायों में अधिक प्रचलित रही है, क्योंकि यह पारंपरिक रूप से जनजातीय संस्कृति और जीवनशैली का हिस्सा रही है। झूम खेती की यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है और इसे आदिवासी समुदायों ने अपनी जीवनशैली का एक महत्वपूर्ण अंग माना है।

झूम कृषि के अनेकों नाम

फसल स्थानांतरण से इस तरीके को असम में झूम खेती, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में पोडू, मध्य प्रदेश में बेवर और केरल में पोनम के नाम से जाना जाता है. इस खेती को अल्पीकरण भी कहा जाता है. चूंकि झूम खेती में जगलों में आग लगाकर खेत बनाई जाती है इसलिए इस खेती की प्रक्रिया को बर्न खेती (burn farming) भी कहा जाता हैं.

झूम खेती के तरीके और प्रक्रिया

  • क्षेत्र का चयन: सबसे पहले एक पहाड़ी या जंगल का क्षेत्र चुना जाता है।
  • क्षेत्र को साफ करना: क्षेत्र को साफ करने के बाद वहां की वनस्पति को काटा जाता है।
  • जलाना: काटी गई वनस्पतियों को सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है और बाद में जलाकर राख बनाई जाती है।
  • बुआई: राख मिलाने के बाद क्षेत्र में बीज बोए जाते हैं।
  • फसल की कटाई: कुछ महीनों बाद फसल तैयार होती है, जिसे काटा जाता है।
  • भूमि को छोड़ देना: फसल काटने के बाद उस भूमि को फिर से वनस्पति से ढकने के लिए छोड़ दिया जाता है।
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झूम खेती के फायदे

प्राकृतिक उर्वरता में वृद्धि

झूम खेती के जलाने की प्रक्रिया से भूमि में पोषक तत्व बढ़ते हैं, जिससे उसकी उर्वरता प्राकृतिक रूप से बढ़ जाती है। यह जैविक खेती का एक प्रभावी तरीका माना जाता है।

कम लागत

इसमें किसी प्रकार के रासायनिक उर्वरकों या महंगे बीजों का उपयोग नहीं होता है, जिससे यह कम लागत वाली खेती का एक अच्छा विकल्प बन जाती है।

आदिवासी समुदायों के लिए आजीविका का साधन

यह विधि आदिवासी समुदायों के लिए रोजगार का एक प्रमुख साधन भी है, जो उनकी आर्थिक स्थिति को मजबूत करता है।

झूम खेती के नुकसान

पर्यावरण पर प्रभाव

झूम खेती में जंगलों को जलाने से पेड़ों का कटाव होता है, जिससे वनों की संख्या में कमी आती है। इस प्रक्रिया के कारण कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ता है जो पर्यावरण के लिए हानिकारक हो सकता है।

मिट्टी का कटाव

लगातार झूम खेती करने से मिट्टी की ऊपरी सतह में क्षरण हो सकता है, जिससे भूमि की उर्वरता भी कम हो जाती है।

फसल की सीमित उत्पादन क्षमता

झूम खेती में फसल उत्पादन सीमित होता है, जो वाणिज्यिक खेती की अपेक्षा कम होता है।

भारत में झूम खेती के प्रमुख क्षेत्र

मिजोरम

मिजोरम में झूम खेती की परंपरा प्राचीन समय से ही है। यहाँ के आदिवासी समुदाय इसे अपनी संस्कृति का हिस्सा मानते हैं।

नागालैंड

नागालैंड में झूम खेती एक आम कृषि पद्धति है। यहाँ की पहाड़ी भूमि झूम खेती के लिए अनुकूल मानी जाती है।

त्रिपुरा

त्रिपुरा में भी झूम खेती एक आम प्रक्रिया है। यहाँ आदिवासी जनजातियाँ अपनी आजीविका के लिए इस विधि का उपयोग करती हैं।

अरुणाचल प्रदेश

अरुणाचल प्रदेश में झूम खेती का व्यापक प्रभाव है। यहाँ की जनजातियाँ इस विधि का प्रयोग अपने दैनिक जीवन में करती हैं।

असम

असम के कुछ हिस्सों में भी झूम खेती को प्रचलित देखा जा सकता है। यहाँ भी झूम खेती को एक परंपरागत खेती पद्धति के रूप में देखा जाता है।

मणिपुर

मणिपुर में भी झूम खेती की परंपरा है। यहाँ की भूमि भी इस विधि के लिए उपयुक्त मानी जाती है।

झूम खेती के प्रति सरकारी प्रयास

भारत सरकार ने झूम खेती के हानिकारक प्रभावों को देखते हुए कई योजनाओं की शुरुआत की है, जिससे आदिवासी समुदायों को दूसरी विकल्पिक खेती पद्धतियों के लिए प्रोत्साहित किया जा सके।

  • राष्ट्रीय कृषि योजना के अंतर्गत कुछ योजनाएँ बनाई गई हैं, जिनसे आदिवासियों को दूसरी खेती तकनीकों के बारे में शिक्षित किया जा सके।
  • आदिवासी विकास कार्यक्रम के तहत उन्हें दूसरी कृषि पद्धतियों में प्रशिक्षित किया जा रहा है ताकि वे झूम खेती के बजाय स्थायी खेती की दिशा में बढ़ सकें।

झूम खेती का भविष्य

भविष्य में झूम खेती के स्थान पर दूसरी अधिक टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल खेती तकनीकों का प्रयोग करने पर जोर दिया जा रहा है। पर्यावरण और मिट्टी की उर्वरता को बनाए रखने के लिए और ज्यादा सतत कृषि (Sustainable Agriculture) पर जोर दिया जा सकता है। आदिवासी समुदायों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए भी उन्हें नई कृषि तकनीकों से जोड़ने की आवश्यकता है।

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निष्कर्ष

झूम खेती भारत के पूर्वोत्तर राज्यों की एक महत्वपूर्ण पारंपरिक खेती पद्धति है। हालाँकि इसके कई फायदे हैं, लेकिन इसके हानिकारक प्रभावों को भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। आदिवासी समुदायों के लिए यह खेती उनकी संस्कृति का हिस्सा है, लेकिन इसे अधिक पर्यावरण-अनुकूल बनाने की आवश्यकता है। भारत सरकार भी इस दिशा में कदम उठा रही है ताकि आने वाले समय में अधिक स्थायी खेती पद्धतियों को अपनाया जा सके।

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