Friday, October 18, 2024
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विदेश से लौटकर विलुप्त होती कलाओं को बचा रहे है तरुण पंत , खड़ा कर दिया 7 करोड़ का बाजार

अकसर हमें बाजार में हैंडीक्राफ्ट या हस्तकला की चीजें काफी भा जाती हैं। लेकिन फिर भी हममें से बहुत से लोग प्लास्टिक के साज सजावट वाले सामान लाना पसंद करते हैं। लेकिन बाहर के तमाम देशों में हैंडीक्राफ्ट का बोलबाला है। लोग घरों में ट्रेडिशनल सामानों का इस्तेमाल करना पसंद करते हैं। ये सब यूरोप और एशिया में काम कर चुके उत्तराखंड के तरुण पंत ने देखा था। इसके बाद ही उन्होंने ठान लिया था कि जब विदेशों में इतने महंगे रेट पर ये चीजें मिल रही हैं तो इंडिया में इनका कारोबार क्यों नहीं फल-फूल सकता। उन्होंने ठान लिया था कि वो इंडिया के ट्रेडिशन और हैंडीक्राफ्ट को विदेशों तक पहुंचाए।

अभी भी विदेशों में इंडिया का काफी हैंडीक्राफ्ट सामान मिलता है लेकिन तरुण ने उन कलाओं पर ध्यान दिया जो इंडिया में लुप्त हो रही थीं और इंटरनेशनल मार्केट में उन्हें अच्छा दाम और पहचान मिल सकते थे। आइए तरुण पंत और उनकी इस मुहीम की कहानी विस्तार से जानते हैं।

उत्तराखंड के रहने वाले तरुण पंत इंडिया और इंडिया से बाहर कॉरपोरेट जॉब कर चुके थे। लेकिन 2017 में उन्होंने इंडिया वापस आने की ठान ली। जब उन्होंने अपनी कॉरपोरेट जॉब छोड़ी तब वो 47 साल के थे और एक कॉरपोरेट कंपनी के एशिया हेड थे। वो अपने विदेश में रहने के दौरान ये देख चुके थे कि कैसे विदेशी लोग हैंडीक्राफ्ट की कितनी वैल्यू करते हैं और वहां पर इनकी डिमांड भी थी।

उन्होंने किसान संवाद टीवी से बात करते हुए बताया कि इंडिया में प्लास्टिक की डेकोरेशन ज्यादा की जाती है लेकिन बाहर लोग इकोफ्रैंडली ज्यादा हैं और प्लास्टिक के विकल्प के प्रति उनकी जागरुकता बहुत है। जब तरुण पंत ने ये वहां देखा तो उन्हें समझ आया कि इनकी कॉस्ट काफी है लेकिन इंडिया में भी हैंडीक्राफ्ट काफी होता है और ये सस्ता भी मिलता है।

2017 से शुरू हुआ सफर


साल 2017 में ये सब देखने के बाद उन्होंने अपनी कॉरपोरेट की नौकरी छोड़ दी। जॉब छोड़ने से पहले भी एक बार वो इंडिया आकर यहां हैंडीक्राफ्ट और बाकी कलाओं के बारे में देखकर जा चुके हैं। उन्हें ये एहसास हो गया था कि इंडिया चलकर इन कलाओं को बचाना चाहिए। इंडिया का हैंडीक्राफ्ट काफी बढ़िया है। गांव में ये काम ज्यादा होता है और इससे गांव की इकोनॉमी को बढ़ावा मिलेगा और रोजगार के और अवसर पैदा होंगे। तो इस तरह तरुण वापस आ गए।

वापस आने के बाद तरुण इंडिया के कई राज्यों में घूमे। वो अपने देश की कलाओं को देखने के लिए नॉर्थ ईस्ट के राज्यों, बिहार, ओडिशा, तमिलनाडु, केरल, आंद्र प्रदेश और महाराष्ट्र गए। वो पूरे छह महीने हिंदुस्तान में घूमे। उन्होंने उन कलाओं के बारे में जानने की कोशिश की जो इंटरनेशनल मार्केट में जा सकती हैं। तरुण बताते हैं, ”मैंने वापस आकर कई ऐसी ट्रेडिशनल आर्ट देखीं जो गायब होती जा रही थीं, क्योंकि नई जेनेरेशन को इसमें रोजगार के साधन नहीं दिख रहे थे। वो कंस्ट्रक्शन वर्क करके या कुछ और करके ही उसमें खुश थे। क्योंकि इस काम से जो 200-300 बन रहे थे, वो उस आर्ट से नहीं बन पा रहे थे।”

उत्तराखंड में ही तरुण थारु जनजाति के लोगों से मिले। इनके यहां पर उन्होंने इनकी कलाओं को देखा कि कैसे इनके मिट्टी के ट्रेडिशनल घर थे। उन्होंने देखा कि ये जनजाति मूंज घास का इस्तेमाल करके काफी बढ़िया प्रोडक्ट्स बना रहे थे। शादियों में मिठाइयां देने के लिए ये काफी बढ़िया कंटेनर बना रहे थे। राशन रखने के लिए भी बास्केट बनाते थे। इनकी बास्केट्री आर्ट कमाल की थी।

इसी तरह तरुण ने उत्तराखंड के सितारगंज में हिंदू शर्णार्थियों के घर पर विजिट किया। ये लोग साल 1971 की लड़ाई के बाद यहां शिफ्ट हुए थे। यहां उन्होंने देखा कि वो बांस से बहुत बढ़िया कारीगरी कर रहे थे। लेकिन मेन काम वो बीड़ी बनाने का कर रहे थे। ये मेहनत का काम भी था और बीड़ी तो वैसे भी सेहत के लिए अच्छी नहीं होती है।

तरुण ने फिर इन लोगों से बात की और काम करने के लिए कुछ आर्टिस्ट को अपने साथ जोड़ने की पहल की। लेकिन कोई भी सामने नहीं आया। सिर्फ अमरवती नाम की महिला सामने आईं, जिन्होंने पंत का साथ दिया। उन्होंने ही उनके साथ काम करना शुरू किया लेकिन बाद में चार-पांच और लोगों वो जोड़ने में कामयाब रहे। इतना ही नहीं उन्होंने सोचा कि क्यों ना मार्केट के हिसाब से प्रोडक्ट बनवाए जाएं इसलिए उन्होंने निफ्ट से एक डिजाइनर को भी अपने साथ जोड़ लिया।

इसके बाद तरुण ने मूंज घास और बांस के प्रोडक्ट बनवाए और उन्हें मुरादाबाद बेचने के लिए लेकर गए। क्योंकि वहां पर काफी एक्सपोर्टर आते थे। तरुण वहां सैंपल देकर आते थे और अलग अलग लोगों से मिलते रहते थे। लेकिन कोई खरीददार मिल नहीं रहा था। ऐसे करते करते करीब 3 महीने बीत गए। इससे वर्करों की उम्मीद खत्म होने लगी थी। लेकिन तरुण ने काम जारी रखा। वो अपनी जेब से वर्करों को काम करने के पैसे देते रहे।

हालांकि मेहनत रंग लाई और तीन महीने बाद ऑर्डर आना शुरू हो गए। इसके बाद टीम बड़ी होती गई। उत्तराखंड में सेल्फ हेल्फ ग्रुप की महिलाओं से बात की गई और उन महिलाओं को टीम में शामिल किया गया जो घर पर काम भी करती थीं और प्रोडक्ट बनाने के लिए भी टाइम देती थीं। क्योंकि अगर वो सिर्फ अपने प्रोडक्ट बनाने के काम में लगतीं तो उनके परिवार वाले उन्हें ना आने देते क्योंकि फिर घर कौन संभालता।

मूंज खास और बांस के बने प्रोडक्ट के बाद तरुण ने ऐंपण आर्ट के कारीगरों को अपनी टीम में शामिल किया। दरअसल इसमें वो बच्चे बच्चियां थीं या वो परिवार थे जिनके पास स्कूल में फीस देने के पैसे तक नहीं थे। लेकिन ये उत्तराखंड की ऐंपण आर्ट के उस्ताद थे। ये वो लोग थे जो उत्तराखंड में हुई प्रलय के बाद नीचे के इलाकों में आकर बसे थे। तरुण ने इनसे ऐंपण आर्ट का काम शुरू करवाया और इनकी भी जिंदगी को पटरी पर लेकर आए और इस तरह से ऐंपण आर्ट का काम भी चल पड़ा। हालांकि फिर कोविड आ गया और इस मुश्किल घड़ी में कॉरपोरेट ने इनका बहुत साथ दिया।

तरुण बताते हैं कि उनका काम जो करीब 4-5 लोगों के साथ शुरू हुआ था। वो आज 3000 हजार लोग हो गए हैं। इन तीन हजार कारीगरों के प्रोडक्ट की इकॉनमी सलाना 6-7 करोड़ रुपये पहुंच गई है। तरुण ने इतने लोगों को संभालने के लिए अपनी एक संस्था शुरू कर दी है। जिसके जरिए वो इन कारीगरों को उनके काम में हर तरह की मदद देते हैं। इन पुरानी कलाओं का जो प्रोडक्ट आज एक्सपोर्टर खरीद रहे हैं वो विदेशों में भी जा रहा है। उत्तराखंड के अलावा आसाम में भी तरुण के साथ कारीगर जुड़े हैं।

सफलता के बाद मिली सराहना
तरुण के इस काम की पूरे उत्तराखंड में खूब चर्चा होने लगे। उन्हें उनके इलाके के विधायक ने भी बुलाया और उनके काम का सराहा। इसके बाद उन्होंने बाकी लोगों से भी तरुण पंत का जिक्र किया और बताया कि कैसे आज तरुण जैसे लोगों की जरूरत है जो इंडिया की कला को जिंदा रखना चाहते हैं।

तरुण ने कुछ एक्पोर्टर्स का भी जिक्र किया जिन्होंने इन कारीगरों का माल बेचा और पूरे पैसे इन्हें दे दिए और उन्होंने अपना कमीशन भी नहीं लिया।

अब इस आर्ट को बचाना चाहते हैं तरुण
उत्तराखंड और चाइना बॉर्डर के पास तरुण पंत को कुछ ऐसे लोग मिले हैं जो पुराने टाइम में हाथ से कालीन बनाया करते थे और इसे ऊन से बनाया जाता था। लेकिन जब उन्होंने इन लोगों से बात की तो पता चला कि इस तरह के कालीन अब बंद हो गए हैं क्योंकि मार्केट में कोई लेने वाला नहीं है। इसके बाद तरुण ने इनसे 4-5 कालीन बनवाए और उन्हें एक्सपोर्टर के पास लेकर गए और पूछा कि अगर ऐसे कालीन बनाए जाएं तो क्या इनके ग्राहक हैं और कितना पैसा मिल जाएगा। लागत के बाद उन्हें एक्सपोर्टर से अच्छे मुनाफे का कोटेशन मिला तो अब तरुण इस आर्ट को बचाने के काम में लग गए हैं।

तरुण पंत का कहना है कि वो इंडिया की ज्यादा से ज्यादा कलाओं को बचाने की कोशिश करेंगे। वो ना सिर्फ कारीगरों से ट्रेडिशनल सामान बनवा रहे हैं बल्कि और भी लोगों को इस कला के लिए ट्रेनिंग दिलवाते हैं। उम्मीद है कि तरुण की इस कोशिश से भारत की लुप्त होती कलाओं को एक नई रोशनी मिलेगी।

अगर आप भी इन लुप्त होती कलाओं के प्रोडक्ट्स चाहते हैं या इस विषय में जानकारी चाहते हैं या तरुण पंत को किसी प्रकार का सहयोग करना चाहते हैं तो आप इनसे 98707 06126 पर संपर्क कर सकते हैं।

 

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